इस मोहब्बत को कौन सा नंबर दूँ, इसका कोई आइडिया नहीं है। बस ये कहा जा सकता है कि स्कूल वाली थी। अगर आपने जयशंकर प्रसाद कृत कामायनी पढ़ी है तो आप आसानी से समझ जाएंगे और नहीं पढ़ी, तो बखूबी समझेंगे।
छरहरा बदन, तीखे नैन-नख्श और गौरा रंग तो नहीं था उसका, ना उसे देख चांद याद आता था। लेकिन वो साथ होती तो चिलचिलाती धूप में 500 मीटर की दूरी पर बस-स्टॉप तक चलना कुछ रत्ती कम भारी लगता था। मुझे बस में बिठाने के बाद ही ऑटो लेती थी।
बस की खिड़की में से कभी उसकी हल्की होती आवाज सुनाई पड़ती तो लगता कि अभी भागकर उसको गले लगा लूँ। लेकिन मोहब्बत में होने से बड़ी विडंबना होती है उसे खोने का डर। आप चाहकर भी अपने दिल की बात सामने वाले से कह नहीं पाते, ये बात अलग है कि उसको पता होता है। लेकिन दुनिया में ‘benefit of doubt’ के अलावा एक ‘drawback of doubt’ भी होता है, जिसके बारे में कोई नहीं बताता।
खैर चलती बस में से कूद कर जान और इजहार-ए-इश्क करके दूसरी जान को कुर्बान करने के लिए जिस दर्जें की सनक चाहिए होती है, वो मुझ में नहीं थी।
धूप वाले सफर में चोरी-छुपे, उसके पसीने से चमकता मुँह और सूखते गले से परेशान उसका अपने होठों पर बार-बार जीभ फिराना, मुझे बहुत कचोटता। काश मेरे पास कोई सुपर-पावर(Superpower) होती और मौसम सुहाना हो जाता।
लेकिन सुहाने मौसम से भी कहाँ कुछ होता। जहां मुझे बारिश बहुत पसंद थी, पूजा को उससे उतनी ही चिढ़ थी। उसको भीगना बिल्कुल पसंद नहीं था। हम दोनों में बहुत फर्क थे, बस 500 मीटर की वो दूरी हमें दुनिया के किसी भी रिश्ते से ज्यादा करीब कर देती थी।
आज भी स्कूल से बस स्टॉप की दूरी उतनी ही है । वो 500 मीटर का सफर तय करने मैं अब भी कई बार निकलता हूँ, पर उसे पूरा नहीं कर पाता। उस रास्ते पर धूप, थकान, बस और ऑटो तो मिल जाते हैं लेकिन उस सफर में अब वो नहीं है।