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नेपाल भूकम्प : एक त्रासदी

नेपाल भूकम्प : एक त्रासदी

Originally Published on Vidhaa.in on June 26, 2015

कहते हैं परिवार इंसान के सबसे करीब होता है। वह हमारी पसंद- नापसंद, हमारी आदतें, हमारी सोच, हमारे जीवन के हरेक पहलु के बारे में जानता है जो हमें शायद बिना किसी शर्त के प्यार करता है। हर रात सोने से पहले हम अपने घर-परिवार के लोगों के चेहरे देखकर सोते हैं। है ना, कितनी परवाह होती है कि ये सब ठीक तो है ना, हम भी उन्हें बहुत प्यार करते हैं।

हर सुबह सोकर उठ उनका ही चेहरा देखना चाहते हैं लेकिन एक सुबह आँख खुलती है कुछ आवाज़ें आ रही हैं सबकुछ हिल रहा है। अरे भाई! ये तो भूकंप है! भागो भागो। फिर हम अपनी जान बचाने को भागने लगते हैं। अचानक पीछे छूटे मकान गिरते हैं हमारे सपने चूर होने लगते हैं। हमारे अपने कहीं खो जाते हैं। कोई कहता है उस पास वाले बेस कैंप में ढूंढों, कोई कहता हैं मलबे में तो नहीं दब गए। ऐसी कल्पना करना भी मुमकिन नहीं। अपनों को खोने का विचार ही हमारे अस्तित्व को हिलाकर रख देता है। फिर उनका क्या जो अपनों को खो चुके है। उनके पैरों तले की ज़मीन खिसक गयी है सरों से छत गायब है। कोई अनाथ हुआ है तो कोई लावारिस हो गया है। किसी-किसी ने तो अपना सभी कुछ खो दिया है। ज़िन्दगी की रेल पटरी से सिर्फ उतरी नहीं है बल्कि पलट चुकी है। नेपाल एशिया के सबसे गरीब मुल्कों में से एक है। भारत का पड़ोसी देश है। नेपाल के हज़ारों लोग बेहतर जीविका की चाह में हर रोज़ भारत का रुख करते हैं या कहें करते थे। भारतियों के लिए भी नेपाल बहुत ख़ास अहमियत रखता है।

25 अप्रैल 2015 की वो तिथि नेपाल के भौगोलिक इतिहास की एक सियाह काली तिथि बन हमारी यादों में हमेशा रहेगी जब सुबह के 11:56 पर धरती के अंदर कुछ गड़गड़ाहट हुयी। ज़मीन ने अंगड़ाई ली और नेपाल की तस्वीर बदल गयी। काठमांडू घाटी में यूनेस्को विश्व धरोहर समेत कई प्राचीन एतिहासिक इमारतों को नुकसान पहुचाँ। 17वीं सदी में निर्मित धरहरा मीनार पूरी तरह से नष्ट हो गयी, जिसके मलबे से 200 से ज्यादा शव निकाले गये। लामजंग से करीबन 34 किलोमीटर की दूरी पर धरती के 15 किलोमीटर की गहराई में कुछ हलचल हुयी जो एक त्रासदी बन गयी।

नेपाल के गोरखा डिस्ट्रिक्ट में पड़ने वाले एक छोटे से गांव बर्पक में अधिकेंद्रित इस वर्ष में अब तक की सबसे भीषण प्राकृतिक आपदा से लाखों लोग प्रभावित हुए। नेपाल के बाहर रहने वाले उन हज़ारों नेपालियों के दिल पर क्या गुज़री होगी! जब उन्हें पता चला होगा की उनके अपने किस तरह के खतरे में हैं। हम हिंदी के उस मुहावरे को कई बार, कई जगह पढ़ चुके हैं “पैरों तले की ज़मीन खिसक जाना” लेकिन क्या एहसास होता होगा जब किसी के कदमों तले की ज़मीन वाक़ई खिसक जाती होगी। भागना चाहते थे इस मुसीबत से लेकिन अपनी ज़िन्दगी की आखिरी रेस में ना जाने कितने लोग हार गए। किसी का घर उजड़ा, तो किसी का परिवार ही बिखर गया।

7.5 से लेकर 8.1 मैग्नीट्यूड की तीव्रता से आये उस 20 सेकेण्ड के भूकम्प पर ही यह सिलसिला नहीं रुका। इसके बाद भी 4 मैग्नीट्यूड से भी ज़्यादा तीव्रता के झटके अगले दिन तक महसूस होते रहे। यह झटके 25 तारीख को अड़तीस दफा और 26 को 2 दफा आये। इसके बाद 27 तारीख की रात 9:36 पर काठमांडू में 4.5 मैग्नीट्यूड की तीव्रता से एक और झटका महसूस किया गया। कुल 41 झटकों के बाद नेपाल के लोगों की ज़िन्दगी उनके लिए कैसी चुनौतियां लेकर आई इसका अंदाजा लगाना शायद ही हम सुरक्षित दूर बैठे लोगों को समझ आये।

25 अप्रैल के भूकम्प के बाद नेपाली आर्मी के 90 प्रतिशत जवानों को भूकम्प प्रभावित क्षेत्रो में भेजा गया। लोगों को बचने और सुरक्षित निकलने के लिए शुरू किये गए इस अभियान का नाम रखा गया ‘ऑपरेशन संकट मोचन’ जिसमे सिर्फ सैनिक नहीं बल्कि देश के अन्य हिस्सों के स्वयंसेवी भी सम्मिलित हुए। इस ऑपरेशन में बचाव पक्ष को खासी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। यह चुनौतियाँ थी हिमस्खलन, आफ्टरशॉक्स, घरों व बिल्डिंगों का मलबा, संचार का माध्यम बार-बार टूटना या ख़राब होना। एक हफ्ते तक इस अभियान के तहत बचे हुए लोग मिलते रहे।

इस त्रासदी के बाद नेपाल को बाहरी देशों से भी मदद मिली। दुनिया भर से 53 से 58 देशों ने नेपाल के लोगों की मदद की जिसमे भारत भी शामिल रहा। खबरों में यह भी सुना गया की कुछ देशों ने ऐसी स्थिति का फायदा उठाना शुरू कर दिया। कुछ समय बाद नेपाल के सुचना मंत्री ने अन्य सभी देशों से उनकी मदद रोकने की अपील की और कहा की आगे का काम वे खुद संभालेंगे। 

नुक्सान सिर्फ जान-माल का नहीं, गावों-बस्तियों का हुआ है, धर्म का हुआ है, आस्था का हुआ है, भावनाओं का हुआ है। किसी का वंश नहीं रहा तो किसी की आस ही खो गयी है। कोई बिछड़ा अपनों से मिला तो कहीं एक शिशु के रूप में किसी के जीवन में नयी किरण आई है। नेपाल के ही एक रेस्क्यू कैंप में एक शिशु का जन्म हुआ जिसका नाम भूपेंद्र रखा गया।

इस भूकम्प से सिर्फ नेपाल ही नहीं बल्कि भारत, चीन, बांग्लादेश में भी नुक्सान हुआ है। इस भूकम्प के कारण भारत के करीबन 78 लोग मृत्यु को प्राप्त हो गए, जिनमे से 57 लोग बिहार के, 16 उत्तर प्रदेश के, 3 पश्चिम बंगाल के और 1 राजस्थान का था। चीन के 5 लोगों की मृत्यु हुयी और 4 लोग गायब हैं इसके अलावा बांग्लादेश के 4 लोगों की भी मृत्यु हुयी।

इस भूकम्प के कारण माउंट एवेरेस्ट पर कई बार हिमस्खलन हुआ जिसमे 19 लोगों समेत गूगल के एक कार्यकारी डैन फ़्रैडिनबर्ग की भी मृत्यु हो गयी। इसके साथ ही इस हिमस्खलन में 120 लोग चोटिल हो गए और बहुत से गायब भी हुए।

भूभौतिकीविज्ञ एवं अन्य एक्सपर्ट्स ने दशकों पहले ही भूकम्प के खतरे के बारे में बताना शुरू कर दिया था, उनका कहना था की नेपाल का शहरीकरण और उसकी संरचना के साथ-साथ, उसके भूगर्भ में ऐसी हलचलें हो रही थी जिनसे नेपाल में एक बहुत विनाशशील भूकम्प आने की आशंका थी। बस कोई तय समय नहीं था।

अभी उस भूकम्प के इकतालीस झटकों के बाद नेपाल में हज़ारों ज़िन्दगियों ने उभरना शुरू किया ही था कि धरती ने फिर से वही मौत का खेल शुरू कर दिया। धरती फिर हिली यह इस साल का दूसरा बड़ा झटका था। 12 मई 2015 को दोपहर 12 बजकर 35 मिनट पर 7.3 मैग्नीट्यूड की तीव्रता से एक और भूकम्प आया। इसका अधिकेंद्र चीनी बॉर्डर के पास काठमांडू और माउंट एवेरेस्ट के बीच था। इस बार 125 से ज़्यादा लोगों की मौत हुयी और 2.5 हज़ार लोग इस आफ्टरशॉक में चोटिल हो गए। कहते हैं 25 अप्रैल को जो पहला भूकम्प आया उसके बाद आने वाले सभी भूकंप उसके आफ्टरशॉक या कहें पश्चात्वर्ती आघात हैं। किन्तु एक सामान्य व्यक्ति के लिए तो यह भूकम्प ही है जिसने लाखों लोगों के जीवन को तबाह कर दिया है जिसने एक या दो बार नहीं बल्कि अब तक पूरे 43 बार उनपर हमला किया है। डर और घबराहट अभी भी मौजूद है कि ना जाने कितनी बार ऐसा भयावह तूफ़ान और आएगा, कितनी बस्तियां और उजड़ेंगी, कितने अरमान अधूरे रह जाएंगे, कितनों का अपने भगवान से भरोसा उठेगा, और कितने ही भगवान को और ज़्यादा मानने लगेंगे। 

इस भूकम्प के बाद नेपाल की आर्थिक स्थिति और भी ख़राब हो गयी है। वहां सबसे ज़्यादा अगर बुरा हाल है तो उस गरीब तबके का जो बहुत पहले से मानव तस्करी का शिकार हो रहा था क्यूंकि अब उस तबके की गरीब औरतों के पास न तो रहने को घर है और बहुतों के पास तो शायद परिवार भी नहीं। ऐसे में उन मासूम और तंगहाल लोगों को अपने झांसे में करना उन मानव तस्करों के लिए कितना आसान होगा इसका अंदाजा तो हम लगा ही सकते हैं।

वहाँ के लोगो की माली हालत और शारीरिक हालत सुधारने पर तो ज़ोर देने की ज़रुरत है लेकिन इस समय उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना ज़रूरी है। क्यूंकि ऐसी स्थिति में नेपाल की ज़्यादातर आबादी तो अवसाद का शिकार हो चुकी होगी। 

कहते है शारीरिक ज़ख्म तो ठीक हो जाते हैं लेकिन जो चोटें मन पर लगती हैं उन्हें भरने में बहुत समय लग जाता है। अब इस हालत से उभरने में नेपाल को कितना समय लगेगा यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है।

किन्तु इस त्रासदी के बाद पूरी मानव सभ्यता के लिए ये आवश्यक है की वे जाने की उनके पूर्वज जिस तरह की वास्तुकला का इस्तेमाल करते थे वो कितना सटीक था। एक मंज़िला खुले मकान हुआ करते थे जिनमे ऐसी स्थिति में कम से कम भागने की जगह तो होती थी जिससे मृत्यु का खतरा कम रहता था। हरियाली थी जिससे धरती पोषित होती थी। यूँ तो हम जानते हैं भूकम्प या धरती का करवट लेना एक प्राकतिक सत्य है। ऐसा समय-समय पर होता ही है। 

लेकिन हम क्या कर रहे हैं, अंधाधुंध जंगलों को काट रहे हैं? सुरंगे खोद रहे हैं? धरती का सारा पानी खींच रहे हैं? प्रदूषण फैला रहे है? अपनी सुविधा के लिए लम्बे मकान व बिल्डिंग्स बना रहे हैं? यह कैसा विकास है जो हमें विपदाओं की जानकारी होते हुए भी, हम खुद को सुरक्षित नहीं कर पाते?

हम विकास कर रहे हैं, ज़्यादा समझदार हो रहे हैं, तो क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं बनता की जिस तरह धरती हमें पोषित करती है, हमें भी उसे पोषित करना चाहिए और अगर हम ऐसा नहीं कर सकते, तो कम से कम हमें इस धरती का पोषण इससे छीनना तो नहीं चाहिए?

Yamini Shukla

Yamini is an experienced Delhi-based creative writer with a deep fascination for the myriad phenomena of the world. With a keen interest in psychology, literature, and current affairs, she craft stories that explore the intricacies of the human experience. Her writing draws inspiration from diverse perspectives and seeks to capture the subtle, often overlooked, details of everyday life.

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