चारों तरफ ख़ुशियाँ बिख़री पड़ी हैं…
पता नहीं क्युँ मन फ़िर भी उस तह लगे ग़म को देखता है……
आँखों के सामने चमकती रोशनी दिख रही है…
फ़िर भी ना जानें क्युँ ये आँखें एक अँधेरा कोना ढूँढ़ती हैं….
सामने भीड़ है लाखों की…
फ़िर भी ना जाने क्युँ ये नज़रें कोई अंजाना चेहरा ख़ोजती हैं….
ज़िन्दगी रोज़ एक पूरी नींद लेने का मौका देती है….
लेकिन पता नहीं क्युँ…
सुकून नींद से नहीं… ग़फ़लत से ही मिलता है….
हर दिन में सैकड़ों किस्से गुज़रते हैं सामने से….
लेक़िन यादों के हिस्सों में कुछ ही सिमट पाते हैं….
कुछ इस तरह… हर रोज़ एक कहानी लिखी जाती है…
और मैं अपना क़िरदार बख़ूबी निभा पाने की तर्ज़ में… दसियों गलतियां करती जाती हूँ…
कुछ यूँ ही ज़िन्दगी… कुछ मुस्कुराहटों और मख़ौल के बदले…
मुझे ढेर सी कुंठन और एक अजीब सी क़ैफ़ियत में छोड़…
एक दरख़्ते पर तेज़ी से पटक कर कहीं ग़ायब हो जाती है…
और फ़िर मुझे डूबना होता है…
अगली सुबह के नए उत्थान के लिए… नए वादों… नए नाटक…और उसी घिसे पिटे क़िरदार के लिए…
कुछ यूँ ही हर रोज़ काल अपना प्रक्रम (रंगमंच) सजाता है….
और मुझे उसपर खड़े अपने आप से पराक्रम करते हुए एक नए प्रकरण का निष्पक्ष उदाहरण पेश करना होता है….