ज़िन्दगी… क्या है ?
ये सवाल, हर लम्हा आता है।
और मेरे मन को कचोट जाता है।
ज़िन्दगी…
एक पैगाम है ?
या कर्मों का अंजाम है ?
एक वादा है,
या अनजाना इरादा है ?
ग़मों की चादर हटते ही,
सूरकिरण सी पड़ने वाली खुशियों की भोर है ?
चाहे जो कुछ भी हो ज़िन्दगी…
लगती मुझे एक बिखरी सी ठोर है।
एक मुनासिब सी ख्वाहिश है ?
एक अदना सा विचार है ?
रू-ब-रू मुझे मुझसे कराता,
एक बेख़ौफ़ सा आईना है ?
मेरी खुद से की गयी दरकार
और मुझे ही सौंपी गयी इजाज़त है ?
ज़िन्दगी मेरी उलझी हुयी एक कैफियत है।
माँ की कही,
मेरे मन को समझती कोई बात है ?
बाबा का सुनाया,
अनुभव का पुराना पाठ है ?
दोस्तों की बाल-सुलभ कोई ठिठोली है या
सड़क पर हर रात, गाड़ियों की बत्ती से होती दिवाली है ?
सौ दफा सुनी नज़्म को,
एक बार और सुन लेने की चाह है ?
पेड़ों के निशानों से,
पता चलने वाली राह है ?
चाहे जो कुछ भी हो ज़िन्दगी
लगती मुझे एक बिखरी सी ठोर है।
जिंदगी, एक बिन पढ़ा कायदा है……
कई दिनों के बाद,
पुरानी जेब में से निकला फायदा है ?
ऊंचे पुल से दिखती,
नीचे वाली सड़क पर चलते लोगों की कतार है ?
ज़िन्दगी, एक धीमी सी रफ़्तार है।
कपास के पेड़ पर उपजे,
अनगिनत रेशों का आसार है ?
हर दिन दिखने वाले ढेरों लोगों को,
दिया और लिया गया व्यवहार है ?
बहुत नाज़ुक और थोड़ी कठोर है।
चाहे जो कुछ भी हो ज़िन्दगी
लगती मुझे एक बिखरी सी ठोर है।