चाचा चौधरी को तो सब जानते हैं लेकिन उनके जनक कौन हैं; इसकी जानकारी कम लोगों को होगी?
एक ऐसे कलाकार जिन्होंने भारत में पहली बार बच्चों की दुनिया में खुशियों के रंग भर दिए। भारत में कार्टून स्ट्रिप्स का चलन तो पहले से ही था पर 20वीं शताब्दी के मध्य तक आते आते हमें मिले श्री प्राण कुमार शर्मा, जिन्होंने कार्टून्स को राजनीतिक और व्यंगात्मक अभिव्यक्ति से परे एक नए चश्मे से देखा। उन्होंने बच्चों को दिए कुछ ऐसे पात्र जिन्हें आज भी सराह और प्यार किया जाता है — जैसे पिंकी और बिल्लू, श्रीमती जी और रमन।
प्राण कुमार शर्मा की कहानी एक ऐसे 9 साल के बच्चे की कहानी है जिसने 1947 के भारत पाकिस्तान बंटवारे की त्रासदी को अपनी आंखों से देखा। चारों तरफ खून-खराबा देखकर उद्विग्न हुए उस बच्चे ने निर्णय लिया कि वो द्वेष और समस्याओं की दुनिया में प्रेम और हंसी के रंग भरेगा।
उन्होंने अपने बड़े भाई की पेंटिंग की दुकान में बचे हुए रंगों से अपने पहले कुछ कार्टून्स बनाए और आगे चलकर अपने सेन्स ऑफ ह्यूमर व कलाकारी से भारत को उसकी पहली कॉमिक्स बुक्स दीं।
लेकिन उनका ये सफर आसान ना रहा। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्राण को भी प्रेमचंद की तरह अपने शुरुआती दौर में गरीबी का दंश झेलना पड़ा था। अपने पारिवारिक खर्चों की आपूर्ति के लिए उन्होंने बहुत से विद्यालयों में बतौर आर्ट्स टीचर कार्य करना चाहा किन्तु लगभग सभी जगह से उन्हें ये कहकर मना कर दिया गया कि उनके पास इस कार्यक्षेत्र से जुड़ी कोई डिग्री या सर्टिफिकेट नहीं है। जिसके बाद उन्होंने मुंबई के जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्रवेश लिया। लेकिन समय ने ऐसा खेल खेला कि उनका कोर्स पूरा नहीं हो पाया।
इसी समय में उन्हें एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में कार्टून डिजाइनिंग का काम मिलने लगा। और उनके द्वारा बनाए गए पात्रों ने पाठकों के मन में ऐसी जगह बनाई कि 80 के दशक तक आते आते उनके चाचा चौधरी, पिंकी, बिल्लू, श्रीमती जी भारत के हर उम्र के पाठक वर्ग के दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बन गए।
प्राण ने अपने जीवन काल में बहुत कुछ पढ़ा। जब किताबों की कमी रही तो लाइब्रेरी चले गए और पैसों की कमी रही तो अपने बड़े भैया की दुकान पर टीन के बैनर लाने ले जाने का काम तक किया। उनके संघर्षों ने उन्हें एक बेजोड़ शख्सियत के रूप में उभरने के अवसर दिए और उन्होंने उस हर अवसर को सही दिशा दी।
एक ऐसा समय भी था, जब एडिटर प्राण के सामने शर्तें रख दिया करते थे और फिर ऐसा भी हुआ जब प्राण की शर्तें ही सबसे ऊपर रखी जाती थीं।