झरोखे से झांकती आँखें
जैसे कुछ कहना चाहती हैं
जैसे जीवन के हरपल की
मुझे व्याख्या सुनाना चाहती हैं
झरोखे से झांकती आँखें हैं
जब आशा लिए मुझे घूरती हैं
तब शायद मेरे अंतर्मन को
वो आँखें झंझोर देती हैं
आज गयी मैं उसके पास
झाँका मैंने भी झरोखे के पास
व्याख्या उसने अब शुरू कर दी
वो आसमान की थी सर्दी
वो धरती से मिलती गर्माहट
वो पवनयान की शैय्या पर
चहचहाती रहती थी दिन भर
पर जग का अँधेरा ऐसा था
उसने उसको भी न बख्शा
अपने काले साए से उसे
इस पिंजरे में था ला फेंका
पिंजरे के झरोखे से
देखती थी वो आसमान
पर पिंजरे की थरथराहट
हरपल लेती थी उसकी जान
पूछती अगले ही पल मुझसे
मैं पंछी भूली हूँ उड़ान
कैसे चले अब जीवनयान
कैसे डालूँ पिंजरे में रहकर
इन पंखों में उड़ने की जान
आज कहा उसने मुझे
तू आगे बढ पिंजरा तो खोल……
झरोखे से झांकती आँखों में
आज देखी मैंने एक नयी शान
जिसने डाली मुझमे भी
डर से लड़ने को थोड़ी जान
पिंजरा तो खोल दिया मैंने
इस दुनिया से भी बोल दिया
जब तक है मेरी जान में जान
हर पंछी को खुला गगन दूँगी
आज वो चली गई… लेकिन
झरोखे से झांकती आँखें
आज एक ज़ज्बा सा दे गईं
इस तम भरी दुनिया को
एक बार फिर से रोशन कर देने की
सलाह सी मुझे दे गईं